1987 के बाद का यह सबसे बड़ा सूखा-प्रणव मुखर्जी
देश के 167 जिले सूखाग्रस्त घोषित,
बादल तो अक्सर रुठते ही हैं, क्योंकि कुदरत भारत का संविधान पढ़कर नहीं चलती, प्रणव बाबू। लेकिन जो देश के माननीय संविधान की सौंगंध खाकर देश सेवा का प्रण लेते हैं, जब उनकी समझदारी उनसे रुठ जाती है तो कुदरत की बेवफाई कहर बन जाती है। जिनको पैसे से सब कुछ मिल जाता है, उनके लिए यह दकियानूसी बातें हैं कि गरीब किसान कैसे अन्न पैदा कर अपनी जिविका चलाता है। किसानों के असली दर्द को शब्दों में बयां कर चुके प्रेमचंद ने कहा था कि पैसा बहुत कुछ है लेकिन सब कुछ नहीं हो सकता। प्रेमचंद जी वक्त बदल गया है इसलिए आज के जमाने में धन बहुत कुछ हैं क्योंकि इससे सब कुछ मिल जाता है। सब हवाहवाई बातें हैं यह यकीनन कुदरत की मिजाज की देन हैं मगर यह मारेगा इसलिए क्योंकि सरकार ने रेत में सर धंसा लिया है। क्या नहीं है इस सरकार के डायनासोरी तंत्र के पास। उपग्रह, विज्ञान, पैसा, मशीन और लोग। सरकारों को सब कुछ मालूम होता है कि सूखे के क्या मायने होते हैं। सूखे का मतलब सिर्फ आर्थिक हानि ही नहीं है, उसमें भूखमरी, मौतें, तबाही जसे डरावने और विभत्स चेहरे शामिल हैं। मगर सूखती खेती सरकार को यह बताती रही कि सूखा कहा है? बस बारिश कुछ कम हुई अरबों के बजट वाला मौसम विभाग अपनी ही भविष्यवाणी को उगलकर निगलता रहा और कृषि मंत्रालय सूखे की बात आने पर हमेशा सूखा प्रभावित क्षेत्र घोषणा नियम पुस्तिका को लेकर बैठ गया जिसे राज्य राजनीति का चश्मा लगाकर ही पढ़ा जाता है। नतीजा सामने है कि गांव की भूखमरी व बेकारी और शहरों को महंगाई मारेगी तथा मंदी से हलकान अर्थव्यवस्था अब सूखकर कांटा हो जाएगी। मौसम विभाग की भविष्यवाणी पर हंसिए मत? इस पर गुस्सा होइए या फिर तरस खाइए। गुस्सा इसलिए जरूरी है क्योंकि यह विभाग डरपोक है। वह अपने राजनीतिक आकाओं के इशारे पर सच नहीं बोलता और पूरे देश को अंधेरे में रखता है। मानसून की शुरुआत के वक्त दाएं-बाएं करते हुए मौसम विभाग बोला कि मानसून सामान्य है और जुलाई में 93 फीसदी वर्षा का अनुमान है। दिल्ली तो यह एक दिन पहले ही पहुंच जाएगा। हो भी क्यों न? आखिर दिल्ली में ही तो यह तय होता है कि मौसम विभाग को क्या कहना है। जुलाई बीत गई तो पता चला कि बारिश करीब 50 फीसदी कम हुई। तब मरियल हो चुका मानसून, विदर्भ, मराठवाड़ा, मध्य भारत, आंध्र तक पहुंच चुका था। लेकिन कृषि मंत्री शरद पवार साहब समझाते रहे कि मानो बादल देवता से उनकी बातचीत जारी है। ज्यादा हुआ तो सूखा क्षेत्र घोषित करने की राजनीति शुरू होगी। यह संवेदनहीनता की पराकाष्ठा ही कही जाएगी कि सूखा जमीन पर दिख रहा है मगर केंद्र की फाइलों को राज्यों से सूखे के सर्टिफिकेट का इंतजार है। सरकार भले ही यह मानने में संकोच करे लेकिन खेती तो अब गई। सूखा दरअसल अपने दूसरे और ज्यादा भयानक चरण की तरफ बढ़ गया है। जिसमें गांवों के अनाज, चारे, तथा पेयजल की किल्लत होगी और पीने की पानी की कमी शहरों की मोटाती आबादी को भी मारेगी। कहीं ऐसा नह हो प्रणव बाबू कि एक तरफ लाल किला से स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की संबोधन चल रहा हो और सूखे से पेट की भूख को बर्दाश्त न कर सकने की हालात में किसान आत्महत्या कर रहा हो। सावधान हो जाइए प्रणव बाबू यह सूखा है?
रत्नाकर मिश्र
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2 comments:
kya bat likhi hai ratnkar ji yahi sukhe aur sarkaron ki hakikat hai!
ankit. thanks
ghnghor sukhe me sarkar ka khajan bhi sukh gya hai yhi sachaey hai
rahul.
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