Sunday, August 16, 2009

उम्मीदों का उजाला
तमाम झंझटों के बीच देश पंद्रह अगस्त बना रहा है। चारों तरफ उल्लास, अठखेलियां और संबोधनों के साथ लोग अपनी स्वतंत्रता का आनंद ले रहे हैं। इसी बीच हमने महसूस किया कि 62 साल की आजादी हमें वहां लेकर नहीं पहुंची जहां तक पहुंचने की हसरत लिए आजादी का कारवां चला था। यह तो नहीं कहा जा सकता कि स्वपन दु:स्वप्न बदल गया, लेकिन समाज, मजहब, जाति और क्षेत्रीयता के जिन मसलों को खूबसूरती से निपटाना था वे बेतरह बिगड़ते चले गए। आजादी के बाद विकास किसी आंदोलन का ऐजेंडा नहीं बना। हमारे लोगतंत्र ने राष्ट्र के नेता नहीं बना बनाए, क्योंकि आगे सिर्फ समर्थन में हाथ उठाने वालों की ही जरूरत थी। 62 साल तक आते-आते वह ताकत भी खर्च हो गई जिसका उपयोग राष्ट्र निर्माण के अभियान में किया जाता था। 62 साल की राजनीति हमें इस लायक नहीं बना सकी हम अपने कद के मुताबिक खड़े हो सके। हमारे नेता सामाजिक समानता के उस आंदोलन को बाइपास कर गए जिसका वादा करते हुए आजादी के ख्वाब देखे गए थे, लेकिन वह आर्थिक क्रांति भी ला रही है। गांव भी बदल रहे हैं। वहां भी तरक्की की बात होती है और उसमें भी हिस्सेदारी की बात होती है। आर्थिक बदलाव धीरे-धीरे एक ऐसा वर्ग विकसित कर रहा है जिसका जाति में कोई वास्ता नहीं है। जातियों के बंधन टूटने में एक बड़ी सामाजिक शक्ति मुक्त हो रही है और यह ताकत राष्ट्र निर्माण में अपनी भूमिका की तलाश में है। ख्वाबों और उम्मीदों की डगर कौन सी है? सारे अंतर्विरोधों के बावजूद सिर्फ जिंदगी बसर करना ही हमारा स्वप्न नहीं हो सकता जहां दो तिहाई समाज दिन रात सिर्फ जिंदा रहने के जुगाड़ में रहे, वहां सपनों की बात ही क्या? सामाजिक, सड़ांध और शोषण ने सदियों से किसी हिन्दुस्तानी ख्वाब की गुंजाइश ही नहीं छोड़ी थी जिन पर समाज में उन्नयन और विकास की जिम्मेदारी भी उन्होंनें मठाधीश और मालिक बनकर समाज की मानसिक और आर्थिक गुलामी के गर्त में ढकेल दिया। समर्थ वर्गो की अकर्मण्यता ने हमारे समाज को अशक्त कर मार दिया था। जो व्यतीत है वह सब कुछ आदर्श नहीं है। उसमें धर्म अध्यात्म के आकाश के साथ सामाजिक शोषण का नरक भी है। वर्गीय स्वार्थ ने अब तक शक्ति का महान अपव्यय किया।
रत्नाकर मिश्र

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