Tuesday, August 11, 2009

सौ साल का शिकवा

सौ साल का शिकवा
हिन्द स्वराज
के प्रकाशन का शताब्दी वर्ष साथ ही मुहम्मद अल्लामा की शिकवा के प्रकाशन के सौ साल। दोनों पुस्तकों में गजब के विचार। जाति समाज को झकझोर देने वाली ताकत। स्वतंत्रता आंदोलन को नई दिशा के साथ एका के सूत्र में पिरो देने वाली शक्ति। पुस्तकों को पूजने के लिए विवश करने वाले विचार। अपने को समझने और समझाने के लिए मजबूर करने वाली शिकवा। हालांकि हिन्द स्वराज के शताब्दी वर्ष पर तो सूखे और महंगाई के बावजूद आयोजन होंगे लेकिन संदेह है कि शिकवा पर कोई हो हल्ला हो। आपको जानकार आश्चर्य होगा कि उस जमाने में इसने पूरे मुस्लिम जगत को झकझोर दिया था, हालांकि विश्व के इस्लामी चिंतन में उसे क्लासिक का दर्जा हासिल है। एक ही देश में विदेशी शासन में रहने की एक ही परिस्थिति में एक महान हिन्दू विचारक और एक महान मुस्लिम विचारक ने देश, दुनिया को किस दृष्टि से देखा था? यह इन दोनों पुस्तकों के समानांनतर अध्ययन से बड़े रोचक रूप में सामने आता है। दूसरे, शिकवा ने मुस्लिम समाज को जिस तरह प्रेरित किया उस का शतांश भी हिन्द स्वराज हिन्दू समाज को नहीं कर सका। (मुस्लिम समाज को तो नहीं ही किया)। शिकवा और चार वर्ष बाद लिखी गई उसी की पूरक रचना जवाब ए शिकवा की संप्रेषणीयता जबर्दस्त है। इसमें अल्लाह के साथ शायर का संवाद है। पहले इकबाल अल्लाह से शिकायत करते हैं कि सारी दुनिया में हम मुसलमानों ने तुम्हारे नाम पर ही सब कुछ किया। तमाम काफिरों, दूसरे धर्मो को मानने वालों को नष्ट किया, उनकी मूर्तियां तोड़ी, उनकी पूरी सभ्यताएं उजाड़ दीं। सिर्फ इसलिए कि वे सब तुम्हारी सत्ता मानें, इस्लाम कबूल करें। मगर ऐ अल्लाह, तेरे लिए इतना कुछ करने वाले मुसलमानों को तूने क्या दिया? कुछ भी तो नहीं। उलटे सारी दुनिया में काफिर मजे और इत्मीनान से रह रहे हैं। उन्हें हूरें और नियामतें यही धरती पर मिल रही हैं, जबकि मुस्लमान दुखी हैं। अब काफिर इस्लाम को बीते जमाने की चीज समझते हैं। इस तरह अल्लाह को ताना देते इकबाल मांग करते हैं कि वह इस्लाम को दुनिया में फिर ताकतवर बनाने के लिए कुछ करे। यह संपूर्ण जीवंत चर्चा अपने आप में पूरी तरह साफ है। सारी समस्या और उसका समाधान बिना लाग-लपेट रखा गया है। कोई बात इशारों में नहीं, जिसके अर्थ पर माथा-पच्ची करने की जरूरत हो। आज से सौ वर्ष पहने भारत के सबसे बड़े मुस्लिम चिंतक के लिए भारत पर विदेशी शासन कोई विषय नहीं था। उसके लिए एक मात्र चिंतनीय विषय था। सारी दुनिया में इस्लामी हुकूमत कैसे कायम हो? कैसे उसे देशभक्ति रूपी कुफ्र से मुक्त कराया जाए ताकि वे अपने मजहब को ही सब कुछ समङों। क्या इसी साफगोई के कारण हमारे देश के बौद्धिक शिकवा की शताब्दी मनाने से कतरा रहे हैं? क्योंकि इस महान रचना की व्याख्या करने में कोई पंथनिरपेक्ष वामपंथी कीमियगिरी काम नहीं आएगी। उसे कोई मनभावन अर्थ देकर, सुंदर सी व्याख्य कर पाठकों, के लिए इसे सहज स्वीकार्य गंगा जमुनी बनाने की कोशिश करना संभव नहीं होगा। शिकवा इस्लामी विद्धता की आधूनिक काल की सबसे मशहूर हस्ती के विचार हैं। शिकवा और जवाब ए शिकवा में आदि से अंत तक जो भी कहा गया है, उसमें पूरी दुनिया में इस्लामी साम्राज्य कायम करने के अलावा न कोई समस्या है, न उसका विकल्प। इसके लिए दूसरे धर्मो को मिटाना आज के लिए भी अपरिहार्य माना गया। वह भी केवल तलवार के बल पर। यदि शिकवा को आधार मानें तो तालिबान और जिहादी दस्ते ठीक वही काम कर रहे हैं, जिसकी उसमें हसरत की गई थी।
यह कतई न समझा जाए कि उन विचारों से आधुनिक मूुस्लिम विद्धान अपने आपको अलग करना चाहते होंगे। बात उल्टी है। उदार कहलाने वाले भारतीय विद्धान रफीक जकारिया ने इकबाल की इन रचनाओं के लिए हाल में नया आमुख लिखा था। इसमें वे शिकवा की प्रशंसा करते हुए इकबाल को वृहत्तर मानवतावादी बताते हैं।
रत्नाकर मिश्र

1 comment:

loksatt said...

aaj ke sahitykaro ki yhi halat hai kya kriyga.
brijesh